Maa Ka Jeevan Safar

माँ का जीवन सफ़र:  मेरी माँ का जन्म नवादा जिला स्थित काशीचक में ओएयाओ में सावन माह के शुक्ल पक्ष "नाग-पंचमी" को बाबू महेश्वरी प्रसाद उर्फ़ मुंशी जी  व श्रीमती कैलाश देवी के घर हुआ था. माँ अपने भाई-बहनों में पांचवी संतान हुई पर दुर्भाग्यबस बिच के भाइयों के असामयिक गुजर जाने के बाद माँ अपने तीन भाई-बहनों में छोटी हो गयीं. माँ के बाद एक छोटा भाई हुए जिनको प्यार से राम बाबु पुकारा गया. माँ चुकीं जन्म से ही बहुत सुन्दर व खुबसूरत थीं और चेहरे पर गजब का चमक रखती थीं इस कारण इनका नाम "कान्ति" पड़ा. माँ को अपने माँ यानि मैया और बाबूजी का बहुत प्यार मिला. शुरू से ही माँ को अपने माता-पिता से अत्यधिक प्यार और स्नेह मिला खासतौर पर अपने बाबूजी का माँ दुलारे थे. माँ के चेहरे पर चमक और आभा  देख कर लोग माँ से खूब आकर्षित होते थे. माँ का बचपन अपने नानी घर नवादा जिला में वारसलीगंज स्थित "चक्बाय" में बिता. माँ अपनी माँ , मौसी और मामा के साथ चक्बाय में ही रहने लगे और माँ के बाबूजी काशीचक से चक्बाय आया करते थे. माँ बचपन से ही अपने नानी के साथ रह कर उनसे पूजा पाठ व अच्छे संस्कार सिखा और काफी जिम्मेदारी  व ज्ञान प्राप्त किया.  धीरे-धीरे अपने नानी के साथ मंदिर जाना व पूजा करना माँ की रूटीन हो गई. माँ अपने नानी के साथ रहकर उनसे साहस और परिश्रम करना भी सिखा. माँ की नानी चुकीं पूजा-पाठ में व देवी के काफी भक्त  थी इस कारण माँ के अन्दर भी देवी माँ के प्रति अटूट श्रधा और बिश्वाश भर गया. माँ धीरे-धीरे स्वयं मंदिर जा कर पूजा करने लगीं यधपि पूजा का सारा सामान भी उपलव्ध भी नहीं था माँ लाल ईट के चूर्ण बनाकर शुद्ध मन से देवी माँ को रोली अर्पित किया. माँ की यही श्रधा माँ को देवी माँ के समीप ला दिया.
माँ की पढाई अच्छे तरीके से नानी के पास ही हुई, और चुकीं माँ के पास कैलिबर व आइ कुई की कोई कमी नहीं थी इसलिए माँ बातों को तुरंत पकड़ लेती थी और तुलना व बिस्लेषण करने की छमता रखती थीं. मनः स्थिति व परिस्थिति को समझ कर माँ सही समय पर सही फैसला लेने में कामयाब होती थीं. निर्णय लेने में माँ के साथ हमेशा माँ होतीं थीं.  माँ अपने नानी के समान ही बिना डरे कोई भी निर्णय बड़े सहस से लेती थीं. माँ हर बाधा और दर्द को आसानी से सह लेती थी क्योंकि साहस, त्याग और दर्द माँ के साथ सदैब रहा.
इसके अलाबा माँ के पास इतनी हिम्मत, साहस, काम करने का ललक, उत्साह और ज्ञान थी  की अक्सर माँ के बाबु जी और मैया उन्हें डाक्टर व इंजिनियर ही मानते थे. माँ की शादी के लिए उन्हें कोई चिंता नहीं थी क्योंकि नाना जानते थे की इतने होनहार व जिम्मेदार बच्ची की शादी स्वयं इश्वर के हाथों होगा और बड़े घर में जाएगी. हुआ भी वही- बड़े होने पर माँ की शादी नेउरा स्थित पुरैनिया में स्व महावीर लाल के दुसरे सुपुत्र श्री शिव सागर प्रसाद के साथ हुई जो काफी गुणवान व सुशिल थे. जो पुरे गाँव में इतने सुशिल व संस्कारी व्यक्ति दूसरा नहीं होगा ऐसा गाँव में ही लोग कहते है. माँ और पापा की जोड़ी आपसी सूझ-बुझ व विस्वास का बंधन साबित हुआ. माँ अपने ससुराल में जाते ही अपने संस्कार से सभी लोगों का दिल लिया. ननद, नंदोशी, भगना, भगनी, देवर, गोतनी व बुजुर्गों, सभी लोगों का मन जित लिया .माँ की शादी में बिदाई के समय मेरे नाना ने कहा था  कि "हमारी बेटी एक भी शिकायत का मौका नहीं देगी"  व नाना ने माँ से कहा था कि "मेरे पगड़ी का लाज रखिया" जिसको माँ ने पूरा निभाया.  माँ अपने घर को इस तरह अच्छे से संम्भाला कि पापा  माँ पर गर्व किया करते थे. माँ का प्यारा स्वभाव सभी को आकर्षित करता था. माँ जहाँ भी पापा के साथ गए चाहे वह औरंगाबाद हो या गया माँ अपने स्वभाव से लोगों व पड़ोसियों को अपना बना लेते थे. औरंगाबाद में अपने दो बच्चे "मुन्ना भैया" और "मुन्नी दी" के साथ क्वाटर में सुनहरे दिन बिताये. क्वाटर के दिनों कि अच्छी बाते माँ अक्सर अपने नाती, पोतो, नातिन व पोती के साथ सेयर करते थे. टिनटिन, गोलू, अनम व सिमरन माँ की कहानी को खूब सुना. बाद में सिमरन तो माँ की जीवन की कहानी सुने बिना रह नहीं पति थी और माँ बड़े प्यार से याद करके ओएयाओ, चक्वाई आदि की कहानी सुनाते थे. गया में पिलग्रिम हॉस्पिटल का क्वाटर, पापा के ऑफिस से आने का इन्तजार करना, ऑफिस के लोगों से मिलना, किराया के मकानों में महारानी रोड स्थित भुनवा का घर, मुरारपुर स्थित लक्ष्मी बाबु का घर आदि में घरेलु जिम्मेदारियों के साथ पड़ोसियों से दोस्ती बढ़ाना, जीवन में जिम्मेदारी को निभाना माँ को बहुत अच्छा लगा. धीरे-धीरे अपने बच्चों के बिच में सबका लालन- पोषण व पढाई-लिखाई , देख-रेख में माँ का समय गुजरने लगा. ऑफिस की व्यस्तता व काम का बोझ के वजह से पापा का स्वास्थ्य धीरे-धीरे गिरता गया. इस समय माँ अपनी सहनशीलता व साहस का परिचय देते हुए ना सिर्फ पापा और अपने बच्चो  को संभाला वल्कि एक अपना घर बनाने का भी सपना देखा. नाना भी चाहते थे की माँ का भी एक घर हो. इतने जिम्मेदारियों के बिच में जहाँ पापा एक तो ऑफिस में व्यस्त रहते थे और समय की कमी थी माँ ने घर बनवाने का फैसला किया. माँ ने कई एक जमीन देखा पर पापा और नाना के दिए सुझाव पर नई गोदाम स्थित राम रूचि स्कूल के पास जमीन लेकर माँ ने एक अच्छा घर बनबाया जिसमे "गृह-प्रवेश" फ़रवरी 1978 में हुआ. माँ को जीवन का यह बड़ा सकून मिला. इसी घर में माँ सब को पढाया-लिखाया और धीरे-धीरे जिम्मेदारियों को सूझ-बुझ से निभाया और  अपने बड़ी सुपुत्री मुन्नी दीदी का बड़े अरमान से विवाह रचाया. शायद माँ-पापा का यह पहला और आखिरी ख़ुशी के पल थे. पापा चुकी सुगर पेशेंट हो गए इसकारण अस्वस्थ्य रहने लगे और 18 जनबरी 1985 को माँ के ऊपर एक बड़ा पहाड़ टूट पड़ा जब अचानक पापा का देहावशान हो गया. माँ पर जिम्मेदारियों का पहाड़ पद गया. एक तरफ बच्चे और दुसरे तरफ पापा से जूदा होने का दर्द, इस परिस्थिति में माँ धीरे-धीरे सब को संम्भाला और दर्द का घूंट पीकर बच्चो को पाला. इस विकट परिस्थिति में हम सब को पापा के नहीं होने का अहसास कम हो इसलिए माँ स्वयं पापा भी बन गए. कैसे-कैसे माँ ने दिन काटे और किस परिस्थिति में माँ सब को संभाला और सब की जरूरतों को बखूबी पूरा किया यह माँ की अदम्य साहस और त्याग का परिचय देता है. इस प्रतिकूल परिस्थिति में माँ ने अपने बड़े सुपुत्र मुन्ना भैया की शादी की और उनका घर बसाया. धीरे-धीरे माँ अपना सुख त्याग कर सभी बच्चे की शादी करते गए और पापा के अधूरे सपने को पूरा करना ही माँ का मिसन बन गया. इस दरमयान माँ अपनी दूसरी सुपुत्री चुन्नी दीदी की शादी बड़े साहस व तमन्ना से किया, तीसरी सुपुत्री पमपम दीदी की शादी कर अपने ऊपर आई जिम्मेदारी को कम किया. फिर छोटी सुपुत्री चमचम दीदी की शादी कर माँ पापा के पिछे छूटे सपने को पूरा किया. माँ अपने दूसरे व तीसरे सुपुत्रों की भी शादी कर अपने समक्ष आई इतनी बड़ी जिम्मेदारियों को दृढ़ता व हिम्मत के साथ पूरा किया. माँ महारानी रोड स्थित प्राचीन देवी मंदिर में श्री सत्यनारायण पूजा आयोजित कर पापा के सपने को निभाया. इस सफ़र में माँ को कई खट्टे-मीठे स्वाद मिले पर माँ किसी का परवाह किये बिना अपना मिशन पूरा किया. इस पुरे मिशन में माँ अपने को अकेला पा कर भी हिम्मत व हौसले को बनाये रखा. माँ के इस साहस, हिम्मत, व हौसले को देख कर लोग इनकी उदाहरण पेश करने लगे. धीरे-धीरे माँ का समय अपने छोटे नाती-नातिन, पोता और पोती के देख-भाल में गुजरने लगा. इसमें मनीष, शिवानी, टिनटिन, सिल्की, गोलू, छोटू, अनम, सोनम, सिमरन और सानु सब को माँ खूब प्यार दिया व दुलार दिया. इन सबको माँ अपने जान से भी ज्यादा प्यार देकर अपनी दरिया दिली का बोध कराया और माँ हमेशा इनके लिए सबकुछ किया. जरुरी दिनों में माँ इनसबको खूब साथ दिया. इन बच्चो ने माँ को खूब सम्मान व प्यार दिया, खासकर गोलू, छोटू, अनम, सिमरन और सानु माँ के सबसे करीब होते थे.

माँ इन दिनों पूजा-पाठ में काफी रहने लगे. घर पर माँ काली की प्रतिमा स्थापित कर काली माँ को हमेशा याद रखते थे. साथ में जहाँ भी दर्शन को गए वहां से देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को ला कर घर पर मन से पूजा करते थे. माँ वैष्णो देवी, विन्ध्याचल माँ, दुर्गा माँ, लक्ष्मी माँ, शारदा माँ, कलकत्ता के काली माँ, पटना के पटन देवी, गणेश जी, हनुमान जी, विष्णु जी, शंकर जी, चक्वाय से लाये दुर्गा माँ जिन्हें माँ "नैहर के माँ" कहते थे, सब को माँ खूब पूजा करते थे. पापा के फोटो और काली माँ का पूजा और आरती माँ रोज करते थे. विशेष तौर पर एक जनबरी, सरस्वती पूजा, शिवरात्रि, होली, रामनवमी, रथयात्रा, तीज, जितिया, दशहरा, दिवाली, छठ जो माँ पहले किया करते थे, पर माँ धूम-धाम से पूजा करते थे. इसके अलाबा अक्षय नवमी व एकादशी माँ अक्सर करते थे.  धीरे-धीरे माँ का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने लगा और 1991 में माँ को शुगर हो गया और सबसे पहले राजू भैया पटना में माँ को यह बात बताएं हालाँकि शुगर की दबाई सुट नहीं किया, इस बीच कुछ दिनों के बाद माँ को बीपी की भी समस्या हो हो गई. माँ को गया में जीबी रोड स्थित डाक्टर प्रमोद कुमार सिन्हा व डाक्टर बिनय कुमार सिन्हा ने माँ का अक्सर इलाज किया. धीरे-धीरे माँ का स्वास्थ्य पर ज्यादा असर पड़ने लगा. माँ के एक्लोते छोटे भाई श्री राम नंदन प्रसाद जो पंजाब नेशनल बैंक में वरिष्ठ शाखा प्रबंधक, बैरागी, गया में कार्यरत है माँ के साथ हर सुख-दुःख में साथ निभाया. हर जरुरी समय पर माँ अपने भाई को ही याद कर के उनका नैतिक व अन्य सहयोग लेते रहते थे. माँ अपने भाई पर गर्व कर दुसरो को भी उधाहरण दिया करते थे. इसमें, माँ की भौजाई श्रीमती रंजना प्रसाद जो श्री रामनंदन बाबु जी की धर्म-पत्नी है, का भी काफी साथ मिला. उनके हाथ का बना करही, छोला, मटर झोर, साग माँ को खूब भाता था. माँ अपने अंतिम दिनों में भी दो दिन पूर्ब उनके हाथ का बना इन ब्यंजनो को काफी तारीफ कर पुनह खाने का जिक्र कर गए पर यह दुबारा पूरा ना हो सका. माँ को 2004 में मोतिआबिन्द का प्रॉब्लम हो गया, गया में डाक्टर अभय सिम्बा से इलाज हुआ पर इसका ओप्रेसन पटना में मुन्ना भैया द्वारा डाक्टर नागेन्द्र प्रसाद के यहाँ 10 दिसंबर 2004 को हुआ. माँ ओप्रेसन के दिन काफी घबराहट थी पर माँ कालीबारी की मिटटी  व देवी माँ को याद करते रहे. ओप्रेसन सफल रहा लेकिन माँ खूब परहेज करते रहे. खाना-पीना से ले कर चलना माँ के लिए परहेज में था. माँ फिर से ठीक होने लगे. लेकिन 2006 में माँ अचानक बाद के दिनों में  साईं बाबा का तो खूब भक्ति व पूजा करने लगे. माँ बाबा साईं के इतने करीब हो गए कि शिर्डी जाकर बाबा के दर्शन को सोचने लगे.
 घर पर भी तरह तरह की परेशानी माँ को चिंतित व दुखी करने लगा. माँ की नींद उचटने लगी, माँ अन्दर ही अन्दर टूटने लगीं, कोई रास्ता नहीं दिखने पर माँ ने पटना में शिफ्ट करने का सबसे बड़ा फैसला लिया. माँ अपना सब कुछ त्याग कर छोटे बेटे की खातिर गया से पटना 25 अगस्त 2009 को शिफ्ट कर गए. माँ का यह निर्णय अपने आप में एक एतिहासिक फैसला था जिसमे माँ ने अपने पुराने दूनिया से जूदा होकर नए समय की तलास में पटना आ गए. हालाँकि पटना में भी दूर्भाग्यपूर्ण स्थिति से निज़ात नहीं मिल पाया नतीजतन  माँ अस्वस्थ्य होते गए. माँ का अशांत मन तब और ज्यादा अशांत हो गया जब माँ का देख-भाल ठीक से नहीं हुआ, माँ की सेवा, दवा-इलाज, मन लगाना आदि में हम कुछ न कर सके. माँ को अगर सही तरीके से ख्याल रखा जाता या माँ का मन लगता व अगर माँ का ठीक-ठीक से स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाता तो ये दिन देखने को नहीं मिलता. यूँ तो माँ सब के लिए जान हाजिर कीं, पर अपने छोटे बेटे के लिए तन-मन-धन अर्पित कर सात जन्मो से भी ज्यादा का सबकुछ न्योछावर कर दिया. कोई माँ बर्तमान जीवन तक ही अपने बच्चे को कुछ दे पाती है पर मेरी माँ ने निः संदेह खुद के साथ त्याग कर मुझे जन्म-जन्मान्तर के लिए बहुत कुछ दे कर माँ की ममत्व का ऐसा रूप दिखाया है जो अतुलनीय है. मैंने कई एक साहित्य, कर्म-त्याग व ममता की कहानी और धर्म-ग्रन्थ पढ़े पर मेरी माँ की गाथा सबसे महान और तुलना से परे है.  मेरी माँ ने माँ का रूप को फिर से सिद्ध किया कि " पुत कपूत होत है - पर माता नहीं कुमाता". मेरी माँ की इस निः स्वार्थ भावना, सौन्दर्य, त्याग, करुणा, ममता, साहस, दृढ़ता, संकल्प, उर्जा, व दानवीरता की कहानी युगों-युगों तक याद किया जायेगा.   जब तक इस धरती पर माँ और बेटे का अवतरण होता रहेगा हमारी माँ की कहानी यूँ ही पढ़ी और समझी जाएगी.